नगर के बड़े बाज़ार में सुनार और लुहार की दुकानें अगल-बगल थीं। सुनार जब कार्य करता तो उसकी दुकान से साधारण शोर होता किंतु लुहार के काम करते समय कान के परदे फाड़ देने-जैसी तेज़ आवाज होती।
संयोग से एक दिन सोने का कण छिटककर लुहार की दुकान में आ गिरा। वहां उसकी भेंट लोहे के कण से हुई। दोनों एक-दुसरे को देखकर आत्मीयता से मुस्कुराये पर अपनी जिज्ञासा रोकने में असमर्थ सोने का कण, लोहे के कण से पूछ बैठा, "बंधु हम दोनों को एक जैसा ही अग्नि में तपना पड़ता है और फिर सामान रूप से हथौड़े के प्रहार सहने पड़ते हैं। मैं यह सारी यातना मौन रहकर सहन करता हूँ किंतु तुम बहुत शोर मचाते हो। " लोहे के कण ने सोने के कण की बात का अनुमोदन करते हुए कहा, "तुम्हारा कथन शत- प्रतिशत सही है परन्तु तुम पर चोट करनेवाला लोहे का हथौड़ा तुम्हारा सगा भाई नही है किंतु मेरा वह सहोदर बंधु है।"
फिर जरा देर मौन रहकर लोहे का कण व्यथित स्वर में बोला, "परायों की अपेक्षा अपनों द्वारा दी गई चोट की पीड़ा अधिक असह्य होती है।"
1 टिप्पणी:
यह रचना व्यंग्य नहीं, व्यंग्य की पीड़ा है। पीड़ा मन में ज़ल्दी धंसती है।
एक टिप्पणी भेजें