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सोमवार, 23 नवंबर 2009

वृत्तियाँ

वृत्तियाँ दो हैं -अनुकूल और प्रतिकूल। जो मन को अच्छी लगे वह अनुकूल एवं जो मन के विरुद्ध हो वह प्रतिकूल कही जाती है। कोई भी काम जो मन के अनुकूल होता है उसमे स्वाभाविक ही प्रसन्नता होती है और जो मन के प्रतिकूल उसमे दुःख होता है। उस दुःख को भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर उसमे से प्रतिकूलता को निकल देना चाहिए और यह विचार करना चाहिए की जो कुछ भी होता है भगवान् की इच्छा से ही होता है। हमलोग अनुकूल में तो प्रसन्न होते हैं और प्रतिकूल में द्वेष करते हैं। भला, इस प्रकार कहीं भगवान् मिल सकते हैं? भगवान् की प्रसन्नता में ही प्रसन्नता का निश्चय करना चाहिए। जो बात मन के अनुकूल हो उसमें तो कठिनाई है ही नही, लेकिन जो मन के प्रतिकूल हो उसको अनुकूल बना लेना चाहिए।
यह कहने या लिखने में जितना आसान है व्यवहारिक जीवन में उतना ही कठिन। इसे आसान बनाया जा सकता है सत्य का पालन करके। वाणी से सत्य बोलना, व्यवहार सत्य करना, सत्य आचरण करना, मन और वचन से दूसरों को कष्ट न देना- इन्ही कुछ नैतिक पहलुओं पर मनन किया जाय तो मन की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदला जा सकता है।

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