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मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

तिनका सुख-दुःख का

तिनका-तिनका सुख क्या होता है
पूछो उस चिड़िया से
जिसने बालकनी में अपना घोंसला बनाया है
रस्सी, धागे, प्लास्टिक, घास, पत्ते और रुई
न जाने कितनी चीजों से सजाया है
तिनका-तिनका दुःख क्या होता है
पूछो उस चिड़िया से
जिसके घोंसले का तिनका-तिनका
बालकनी के शो के लिए
अभी-अभी मालकिन ने
बाहर फिंकवाया है।

बुधवार, 25 नवंबर 2009

पीड़ा

नगर के बड़े बाज़ार में सुनार और लुहार की दुकानें अगल-बगल थीं। सुनार जब कार्य करता तो उसकी दुकान से साधारण शोर होता किंतु लुहार के काम करते समय कान के परदे फाड़ देने-जैसी तेज़ आवाज होती।
संयोग से एक दिन सोने का कण छिटककर लुहार की दुकान में आ गिरा। वहां उसकी भेंट लोहे के कण से हुई। दोनों एक-दुसरे को देखकर आत्मीयता से मुस्कुराये पर अपनी जिज्ञासा रोकने में असमर्थ सोने का कण, लोहे के कण से पूछ बैठा, "बंधु हम दोनों को एक जैसा ही अग्नि में तपना पड़ता है और फिर सामान रूप से हथौड़े के प्रहार सहने पड़ते हैं। मैं यह सारी यातना मौन रहकर सहन करता हूँ किंतु तुम बहुत शोर मचाते हो। " लोहे के कण ने सोने के कण की बात का अनुमोदन करते हुए कहा, "तुम्हारा कथन शत- प्रतिशत सही है परन्तु तुम पर चोट करनेवाला लोहे का हथौड़ा तुम्हारा सगा भाई नही है किंतु मेरा वह सहोदर बंधु है।"
फिर जरा देर मौन रहकर लोहे का कण व्यथित स्वर में बोला, "परायों की अपेक्षा अपनों द्वारा दी गई चोट की पीड़ा अधिक असह्य होती है।"

सोमवार, 23 नवंबर 2009

दृष्टिकोण

एक बोध - कथा है- वीरान जंगल में एक सुंदर मकान था। एक साधू ने उसे देखकर सोचा- कितना सुंदर स्थान है यह ! यहाँ बैठकर ईश्वर का ध्यान करूँगा। एक चोर ने देखा तो सोचा - वाह ! यह तो सुंदर स्थान है, चोरी का माल लाकर यहाँ रखूँगा। एक दुराचारी ने देखा तो सोचा - यह तो अत्यन्त एकांत स्थान है, दुराचार के लिए इससे उत्तम स्थान और कहाँ मिलेगा ? एक जुआरी ने देखकर सोचा - अपने साथियों को यहाँ लाऊंगा, यहाँ बैठकर हम जुआ खेलेंगे।
अलग - अलग दृष्टिकोण होने के कारण एक ही मकान को प्रत्येक व्यक्ति ने अलग - अलग रूप में देखा। इसलिए आवश्यकता है दृष्टिकोण बनाने की। जैसा दृष्टिकोण होगा, वैसा ही अंतःकरण होगा। फल भावना पर निर्भर है।

वृत्तियाँ

वृत्तियाँ दो हैं -अनुकूल और प्रतिकूल। जो मन को अच्छी लगे वह अनुकूल एवं जो मन के विरुद्ध हो वह प्रतिकूल कही जाती है। कोई भी काम जो मन के अनुकूल होता है उसमे स्वाभाविक ही प्रसन्नता होती है और जो मन के प्रतिकूल उसमे दुःख होता है। उस दुःख को भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर उसमे से प्रतिकूलता को निकल देना चाहिए और यह विचार करना चाहिए की जो कुछ भी होता है भगवान् की इच्छा से ही होता है। हमलोग अनुकूल में तो प्रसन्न होते हैं और प्रतिकूल में द्वेष करते हैं। भला, इस प्रकार कहीं भगवान् मिल सकते हैं? भगवान् की प्रसन्नता में ही प्रसन्नता का निश्चय करना चाहिए। जो बात मन के अनुकूल हो उसमें तो कठिनाई है ही नही, लेकिन जो मन के प्रतिकूल हो उसको अनुकूल बना लेना चाहिए।
यह कहने या लिखने में जितना आसान है व्यवहारिक जीवन में उतना ही कठिन। इसे आसान बनाया जा सकता है सत्य का पालन करके। वाणी से सत्य बोलना, व्यवहार सत्य करना, सत्य आचरण करना, मन और वचन से दूसरों को कष्ट न देना- इन्ही कुछ नैतिक पहलुओं पर मनन किया जाय तो मन की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदला जा सकता है।

रविवार, 22 नवंबर 2009

वक़्त बहुत थोड़ा है

पेड़ पर बैठी सभी बुलबुलें सहम-सी गयीं
फिर किसी शाख को इन मनचलों ने तोडा है

एक चिंगारी भी नफरत की बहुत है लेकिन
प्यार जितना भी मिले ज़िन्दगी में थोड़ा है

दिल के शीशे को सदा शक से बचाकर रखना
प्यार की राह में ये सबसे बड़ा रोड़ा है

मैंने कुछ भी न कहा और तुमने सुन भी लिया
दिल से दिल तक ये तुमने कौन तार जोड़ा है

बात बिगड़ी हो अगर बढके बनालो यारों
बात ने तोडा है दिल, बात ही ने जोड़ा है

मौके हरदम हैं यहाँ खूब बिगड़ने के लिए
ख़ुद सम्हालने को मगर वक़्त बहुत थोड़ा है।

शनिवार, 21 नवंबर 2009

अंतस का प्रकाश

अंतस का अन्धकार जब हमारे आत्मबल के प्रकाश से टकराता है तब हमारे अन्दर विद्यमान चेतना का बिन्दु, जिसे इश्वर का अंश कहा जाता है वही हमारे अस्तित्व व् विवेक की रक्षा करता है। अतः हमें अपने आत्मबल को और प्रखर करना है। हमारी चेतना जितनी बलबती होगी, उतनी ही हमारे अन्दर व्याप्त ऊर्जा अंतस के अन्धकार को मिटाने में समर्थ होगी। हमें अपने आत्मबल से चेतना को परिष्कृत करना होगा। चेतना पर जमी हुई विकारों की परतों को आत्मबल और विवेक के माध्यम से ही हटाया जा सकता है। इसकी निगरानी हमारे द्वारा समय-समय पर करते रहना ही हितकर होगा, ताकि भविष्य में आने वाली विपदाओं से बचा जा सके। यदपि आत्मबल हमारे लिए कवच का काम करता है, लेकिन हम ऐसा काम ही क्यों करें जिससे आत्मबल का प्रयोग बचाव के लिए करने की नौबत आए, बल्कि इसका प्रयोग रचनात्मक कार्यों और परहित में किया जाना चाहिए। परमात्मा ने हमें शरीर दिया, बुद्धि-विवेक दिया ताकि इनका सही इस्तेमाल करके जरुरतमंदों की मदद की जा सके और प्रभु का प्रिय बना जा सके।
चेतना ही प्राण है, जिसे जीवन कहते हैं, जो प्रभु के अनुग्रह से ही हमें प्राप्त हुआ है। साथ ही इस दुर्लभ मानव शरीर को हमें निर्मल रखते हुए आराधना करनी है। जिसका प्रतिफल व्यष्टि और समष्टि, दोनों का ही कल्याण करेगा। परमात्मा ने हमें ऐसे इस संसार में कुछ ऐसे काम करने के लिए भेजा है जो मनुष्य ही अपनी बौद्धिक क्षमता के आधार पर कर सकता है, जैसे की दूसरों की सेवा, सहायता, परोपकार, ज्ञानदान आदि की अपेक्षा प्रभु ने विशेष अनुग्रह प्रदान किया है। हमें यह विचार करना चाहिए की हम प्रभु की अपेक्षाओं में कितने खरे उतरते हैं, यदि प्रयाप्त नही तो क्यों? क्या बाधा है इस मार्ग में। जब हम अपने को कर्तापन के अहम् से मुक्त कर लिंगे तो इस मार्ग में आने वाली समस्त बाधाएं स्वतः तिरोहित हो जायेगी। आत्मबल की शक्ति असीम है, क्योंकि यह प्रभु के अनुग्रह से ही हमें प्राप्त हुई है।

सचिन बनाम ठाकरे

सचिन का प्यार क्रिकेट है राजनीति नहीं. बाल ठाकरे और राज ठाकरे जैसे लोगों के कारण जो मुम्बई की छवि पुरे देश में धूमिल हो रही है उसे बचाने के लिए ही सचिन का बयान की "मुम्बई सभी भारतियों का है", क्या ग़लत है। इसमें कोई राजनीति नहीं है. .........और वैसे भी राजनीति किसी की बपौती नहीं की कोई किसी को राजनीति में आने या राजनीति करने पर टिका टिप्पणी करे.सचिन की वजह से अंतर्राष्ट्रीय छितिज़ पर भारत का सम्मान बढ़ा है और ठाकरे का नाम आते ही भाषा और क्षेत्रवाद की स्वार्थपरक राजनीति करनेवाले शख्शियत का चेहरा सामने आता है। जो कई बेगुनाह उत्तर भारतियों के क़त्ल का जिम्मेवार है।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

बाल श्रम पर लगे रोक

आज बाल श्रम पर रोक के लिए कानून बना हुआ है, लेकिन बचपन के सौदागरों का कुछ भी नहीं बिगाड़ पा रहा है. हज़ारों, लाखों गरीब बच्चे जो 8-15 वर्ष के हैं बाल मजदूरी कर रहे हैं। यह काम दुकानों, होटलों, खेतों में बोझा ढ़ोने में चल रहा है पर प्रशासन इसे रोक पाने में असमर्थ है। शादी के मौके पर यह बच्चे प्लेट धोने से पानी पिलाने का काम करते हैं। सर पर लाइट ढोने जैसे भारी और जानलेवा काम कर रहे हैं पर सरकार का कोई भी कानून इस पर रोक लगाने में असमर्थ है जिससे बच्चे मानसिक तौर पर विकलांग हो रहे हैं। उनके बचपन का शोषण हो रहा है वो स्कूल से वंचित हो रहे हैं। उन्हें उनका हक नहीं मिल रहा है. जिस उम्र में बच्चे खेलते-कूदते हैं और पढ़ते हैं, उस उम्र में उनसे कठोर से कठोर काम लिए जाते हैं। सरकार को इस पर कठोर कानून बनाकर इसे पूरी तरह से ख़त्म करना होगा, जिससे बच्चों का बचपन ना छीने और वे आगे जाकर देश और समाज में अपना योगदान दे सकें।

अंगरेजी की मारी हिन्दी बेचारी

राष्ट्रीय भाषा हिंदी का भारत में वही स्थान है जो राष्ट्रीय खेल हॉकी की है। जिस तरह से हॉकी पर क्रिकेट हावी है उसी तरह हिंदी पर अंग्रेजी। आज थोडा सा पढ़ा लिखा व्यक्ति भी हिंदी अपनाने में अपनी प्रतिष्ठा का हनन समझते हैं। उत्तर भारतीय को यदि छोर दिया जाये तो कमोबेश सभी राज्यों में हिंदी का यही हाल है. दक्षिण के राज्यों में तो स्थिति और भी चिंताजनक है। जब तक कानूनी और मानसिक रूप से सभी संस्थाओं और कार्यालयों में कार्य करने का माध्यम हिंदी और केवल हिंदी नहीं होगा तब तक हिंदी की स्थिति सुधरने वाली नहीं है।

हमारे तथाकथित नेता

ये हमारे देश की विडंम्बना ही है की आज़ादी के इतने वर्षो के बाद भी हम भारतीय गुलाम हैं। आज़ादी से पहले अंग्रेजों कि गुलामी और आज़ादी के बाद हमारे देश के कर्णधार कहे जाने तथाकथित नेताओं कि गुलामी। हमारे देश कि राजनीतिक व्यवस्था ही इन नेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए ऐसी कर दी कि देश के भोले और मासूम लोगों में जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, सम्प्रदाय आदि के नाम पर जनता को भड़का कर अपनी राजनितिक रोटियाँ सेंक रहे हैं। इसमें जनता भी कम दोषी नही है, उन्हें उन नेताओं कि कुत्सित भावना समझना चाहिए जो उनके कंधे पर बन्दुक रखकर अपना लाभ उठाते हैं।

दलित और हमारी मानसिकता

यह विडंम्बना ही है की आज हम कंप्यूटर युग में जी रहे हैं, देश को विकासशील से विकसित राष्ट्र की श्रेणी में लाने की प्रयास की जा रही है लेकिन हमारी संकीर्ण मानसिकता में कोई बदलाव नहीं है। एक वो समय था जब राम राज्य में भी दलित शम्बूक का बध श्री रामचंद्र जी के हाथों हुआ, महाभारत काल में एकलव्य का अंगूठा काटा गया। ....... और आज भी समाज की स्थिति कुछ अलग नहीं है यह हमारी पौराणिक मानसिकता की उपज है। दलित ना होते हुए भी मैं समाज के सताए हुए इन सभी दलितों को सलाम करता हूँ।