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सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

माता-पिता की वन्दना

माँ और पिता पर कुछ पंक्तियाँ आपके बीच निवेदित करता हूँ..
जरूर पढियेगा...
**********
माता-पिता बड़े ही जतन से, प्यार से, विभिन्न प्रकार के झंझटों से जुझते हुए अपने सामर्थ्य के अनुसार अपने बच्चे को पालते हैं, पोषते हैं, उन्हें शिक्षा देते हैं इस उम्मीद के साथ कि एक दिन हमारा बच्चा हमारे परिवार का, हमारे समाज का, हमारे देश का नाम सारे जगत में रौशन करेगा....
एक अच्छा इंसान बनेगा...
देश का सच्चा नागरिक बनेगा..
********
माता-पिता बच्चों के जीवन और भविष्य के निर्माता हैं...
माता-पिता के बिना बच्चों का जीवन नीरस है...

मुझे नहीं मालूम कि किनकी माँ जीवित हैं और किन्होंने माँ को खो दिया है.
पर मेरा व्यक्तिगत मत ये है कि
जिनकी माँ जीवित हैं, जिनके पिता जीवित हैं
वो दुनियाँ के सबसे सम्पन्न लोग हैं...
वो दुनियाँ के सबसे अमीर लोग हैं...
वो दुनियाँ के सबसे धनाढ्य लोग हैं...

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एक मिनट के लिए बचपन में लौटियेगा..
याद कीजियेगा..
जब हम बहुत छोटे थे,
माँ की गोद में थे,
माँ का स्तनपान करते थे
तब माँ का एक स्तन मुँह में लेकर
हमने उस माँ को
और दुसरे स्तन पर
अपने छोटे-छोटे पैरों से
ना-जाने कितनी बार मारा,
पर उस माँ ने
हमें दुध पिलाना बंद नहीं किया.

लात खाकर भोजन देने की शक्ति उस परमपिता परमेश्वर ने दुनियाँ में यदि किसी को दी है
वो सिर्फ उस माँ को दी है..
माँ के अलावा ये ताकत किसी के पास नहीं है..

याद कीजियेगा...
उन दिनों में जब हम चौकों में,
रसोई में बैठकर खाना खाया करते थे
और माँ खाना बनाती थी..
उस वक्त थाली पर बैठकर
हमनें जब भी इधर-उधर देखा
तो माँ समझ गई
और उसने नमक का डब्बा
हमारी तरफ सरका दिया..
हमारे बिना बोले समझनेवाली वो माँ
जब हम खो देते हैं
वो माँ हमें बहुत याद आती है..

वो माँ जो हमारे परीक्षा देते जाते वक्त
दही की कटोरी लेकर,
शगुन बनकर
आकर खड़ी हो जाती थी,
उसे हम खो देते हैं
वो माँ हमें बहुत याद आती है..

*****
रमेश शोज की चार पंक्तियाँ ....

बहुत रोते हैं लेकिन दामन हमारा नम नहीं होता,
इन आँखों के बरसने का कोई मौसम नहीं होता..
मैं अपने दुश्मनों के बीच भी महफूज रहता हूँ,
मेरी माँ की दुआओं का खजाना कम नहीं होता..

स्वामीनाथ पांडे की तीन पंक्तियाँ
जरा गौर कीजियेगा
स्वामीनाथ पांडे ने तीन पंक्तियों को आधार बनाकर एक उपन्यास लिख दिया....

उसने लिखा...

एक विधवा माँ थी,
उसके दो बेटे थे..
एक बेटा नीचेवाले माले पर रहता था,
दुसरा बेटा उपरवाले माले पर रहता था..
विधवा माँ 15 दिन एक बेटे के यहाँ खाना खाती थी,
विधवा माँ 15 दिन दुसरे बेटे के यहाँ खाना खाती थी,
पर ये उस विधवा माँ का दुर्भाग्य था कि
साल में जो जो महीनें 31 दिनों के होते थे
उस एक दिन
उस विधवा माँ को उपवास रखना पड़ता था..

9 महीनें पेट में रखनेवाली माँ
जब एक जवान बेटे को एक दिन भारी लगने लगी तब उस बेटे को समझाने के लिए

कवि ओम व्यास "ओम" ने कुछ पंक्तियाँ माँ के लिए लिखी...
पढियेगा..
यात्रा कीजियेगा मेरे साथ..

माँ, माँ संवेदना है, भावना है, एहसास है,
माँ, माँ संवेदना है, भावना है, एहसास है,
माँ, माँ जीवन के फूलों में खुशबू का वास है ..
माँ, माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है,
माँ, माँ मरूस्थल में नदी या
मीठा-सा झरना है

माँ, माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है,
माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है..

माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है,
माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है..

माँ झुलसते दिनों में कोयल की बोली है,
माँ मेहदी है, कुमकुम है, सिंदुर है, रोली है

माँ कलम है, दवात है, स्याही है,
माँ परमात्मा की स्वंयम एक गवाही है..

माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है,
माँ फूँक से ठंढ़ा किया हुआ कलेवा है..

माँ अनुृष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,
माँ  जिन्दगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है..

माँ चुड़ी वाले हाथों की मजबुत कंधों का नाम है,
माँ काशी है, कावा है और चारों धाम है..

माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,
माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है..

माँ चुल्हा-धुँआ-रोटी और हाथों का छाला है,
माँ जिंदगी की करूआहट में अमृत का प्याला है...

माँ पृथ्वी है, जगत है, धूरी है,
माँ बिना इस सृृष्टि की कल्पना अधुरी है..

तो माँ की ये कथा अनादि है, ये अध्याय नहीं है,
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है..
माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है..

तो माँ का महत्व दुनियाँ में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनियाँ में कुछ हो नहीं सकता.

तो मैं कविता की ये पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ,
मैं दुनियाँ की सब माताओं को प्रणाम करता हूँ... ����

जहाँ माँ, संतान के अस्तित्व की धूरी है
वहीं पिता के बिना माँ की जिन्दगी अधुरी है.

किसी ने शेर कहा....

पके फल पेड़ों से रिश्ता तोड़ जाते हैं,
और अपाहिज बाप हो जाए तो बेटे छोड़ जाते हैं..

पिता जब पुत्र को बाजार ले जाता है
और जेब में 50 रूपये होते हैं
और बच्चा 200 रूपये के सामान को खरीदने की जिद्द करता है
उस वक्त
एक पिता की विवशता और बच्चे की जिद्द..
इसके बीच के एहसास में खड़े होकर...

कवि ओम व्यास "ओम" की कविता की कुछ
पंक्तियाँ पढ़िए...

पिता क्या होता है..

पिता जीवन है, संबल है, शक्ति है,
पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है..

पिता अंगुली पकड़े बच्चे का सहारा है,
पिता कभी कुछ खट्टा, कभी खारा है..

पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है,
पिता धौंस से चलनेवाला प्रेम का प्रशासन है

पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान है,
पिता छोटे से परिदें का बड़ा आसमान है

पिता अप्रदर्शित, अनंत प्यार है,
पिता है तो बच्चों को इंतजार है...

पिता से ही बच्चों के ढ़ेर सारे सपने हैं,
पिता है तो बाजार के सब खिलौने अपने हैं..

पिता से परिवार में प्रतिपल राग है,
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है..

पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है,
पिता गृहस्थ-आश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है..

पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ति है,
पिता रक्त में दिए हुए संस्कारों की मूर्ति है..

पिता एक जीवन को जीवन का दान है,
पिता पिता दुनियाँ दिखाने का एहसान है,

पिता सुरक्षा है अगर सिर पर हाथ है,
पिता नहीं तो जीवन अनाथ है

तो पिता से बड़ा तुम अपना नाम करो
पिता का अपमान नहीं, उनपर अभिमान करो..

क्यूँकि माँ-बाप की कमी को कोई बाँट नहीं सकता,
और ईश्वर भी उनके आशीषों को काट नहीं सकता..

विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है,
माँ-बाप की सेवा ही सबसे बड़ी पूजा है..

विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्राएं व्यर्थ है,
यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ है..

वो खुशनसीब हैं, माँ-बाप जिनके साथ होते हैं,
क्यूँकि, माँ-बाप के आशीषों के हाथ हजारों हाथ होते हैं....

शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

कहीं नहीं

अक्सर रात को
भूखा रहता हूँ मैं
जब कभी
खा रहा होता हूँ
अचानक फुसफुसाहट सी
होती है कानों में
मानो कोई कह रहा हो
मेरी तरफ से भी
खा लीजियेगा एक रोटी
चारों ओर घूमती निगाहें
और फिर सन्नाटा....
एहसास होते ही मानो
भूख मिट सी जाती है
होठ सुख से जाते हैं
आँखे अविरल शून्य
निहार रही होती है
घर के दीवारों पर
आँखे अपने ही सपनों को
ढूंढ रही हो जैसे
उन दीवारों पर..
ऑंखें देख रही हो जैसे
दीवारों पर बने आकृति पर
हाँ आकृति
बोलती ऑंखें
मुस्कुराते होठ
रोटी की तरफ
अंगुली दिखाती आकृति
हाँ वही आकृति
तेरी मुस्कुराती आकृति
तेरी हमशक्ल आकृति..
और अचानक जैसे
एहसास हुआ हो
थाली में पड़ी रोटी
अब सुख चुकी है
हाथ में लगी सब्ज़ी
अब सुख चुकी है
एक निवाला भी नहीं जाता
अब हलक में
अचानक मुस्कुराती आकृति
जैसे बोल पड़ती है..
क्यों? क्या हुआ??
क्यों होठ सुख गए हैं तेरे
क्यों भूख मिट गयी है तेरी
क्यों पागल हो मेरे प्यार में
अब ना मैं तेरी ना तू मेरा
फिर क्यों ढूंढते हो मुझे
इन निर्जीव सी दीवारों में
क्यों भावनाओं के
भंवर-जाल में फँसता है तू
क्यों  रो रो कर
अपना दिल दुखाता है तू
अब कभी
तू मुझे याद ना करना
सदा के लिए
मुझे तुम भूल जाना
अब मेरे लिए तू
कभी मत रोना
मेरे जाने के बाद मेरे लिए
अंतिम आंसू बहा लेना
अब तेरे लिए मैं
कहीं नहीं हूँ
कहीं नहीं.....
.......   .......
..  ............
........... ....
कहीं नहीं
.....  !!!!

बुधवार, 27 जनवरी 2016

दिल का घोंसला

सूरज चढ़ता था
और उतरता था..
चाँद चढ़ता था
और उतरता था..
जिंदगी कहीं भी
रुक नही पा रही थी,
वक्त के निशान
पीछे छुटे जा रहे थे,
लेकिन मैं वहीं खड़ा हूं
जहाँ तुमने मुझे छोडा था
बहुत बरस हुए,
तुझे, मुझे भुलाए हुये !
मैं उम्र की दहलीज़ पर खरा हूँ !!
और तू उम्र की पहले पड़ाव पर
अमरुद का वह पेड़,
जिस पर तेरा मेरा नाम लिखा था
नए जमींनवालों ने काट दिया है !!!
जिनके साथ मैं जिया, वह खो चुके है
मैं भी चंद रोजों में गुजरने वाला हूं
पर,
मेरे दिल का घोंसला,
जो तेरे लिए मैंने बनाया था,
अब भी तेरी राह देखता है...

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

कितना अंतर होता है

कितना अंतर होता है
बीते हुए कल और आज में...
कल कागज़ के चंद टुकड़ों को
पाने के लिए कितना ताना-बाना
बुना करते थे हमदोनो
और आज
व्हाट्सऐप पे मेसज डिलीट करते
तेरी उँगलियाँ नहीं थकती,
घंटों गुजर जाते हैं मुझे
जिस अंतर्वेदना को गढ़ने में..
कितना अंतर होता है
बीते हुए कल और आज में..
कल रात के सन्नाटे में पागलों की
तरह सडकों पे मेरा मोबाइल पे
"आई लव यू" चिल्लाना
और आज
यूँ ही दिन गुजर रहे हैं
तेरे गुड़ मोर्निग गुड नाईट के
मेसेज का ख़ामोशी से
रिप्लाई करने में..
कितना अंतर होता है
बीते हुए कल और आज में..
कल दिन और रातें
गुजर जाती थीं
तेरी मासूम सी बातों में
जब कान से चिपके मोबाइल
और रात के अँधेरे में
तुझे सुनना-अपनी सुनाना
और आज
इस बदनसीब की आवाज
पहुँचती नही
तेरे दिल के किसी कोने में...
कितना अंतर होता है
बीते हुए कल और आज में..
कल कितना जूनून था
मुझे पाने की
सारे जगत को छोड़
संग भाग जाने की,
और आज समझ जाना कि
वो नादानी थी मेरी उम्र की..
कितना अंतर होता है
बीते हुए कल और आज में..
कल था जिसके आँखों का नूर,
आज लाचार-बेवस मैं
दोस्त बन गया रिश्ते निभाने में
कितना अंतर होता है
बीते हुए कल और आज में..